Page 30 - दिल्ली नगर निगम पत्रिका 'निगम आलोक-2024'
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वमट्री की खुशबू
हलकी हलकी बाररशों िें, भँवरे और दततदलयां संगदिलों की सादजशें
अनंत अपनरी ख़वादहशों िें िुसक ु राते से ििन दफर भरी भला हि कब टूटे,
सब लरीन हैं खुशनुिा नरीला गगन लड़ते रहे, लड़ते रहे,
अपनरी वयसतताओं िें, बािलों की घनन घनन लड़ते रहे, लड़ते रहे
सरीदित सरी क्षिताओं िें, सरसरातरी हवा सनन न जाने कब ये कहानरी,
तभरी अिानक खुि िें हरी र्े हि िगन बरीता हुआ बिपन हो गई र्री
हवा का एक झौंका, िसत जरीवन िें रहे, दजंिगरी के झंझटों िें,
दजसने िेररी जब तलक बचिे रहे खो सरी गई र्री
एकाग्रता को रोका, न जाने कब बड़े हुए, जकड़ा दजमिेिाररयों ने,
िरतरी पर पड़ने वालरी बूँि से, पैरों पर अपने खड़े हुए रोज हरी हिें
लाता है सौंिरी सौंिरी खुशबू िलने लगे दफर दसलदसले, जूझने की उलझनों से,
और आता हूँ िैं बाहर हकीकत से र्े परे आित सरी हो गई र्री
उस अनिाहरी तललरीनता से, दजंिगरी के फैसले अपने भरीतर से दनकल कर,
शांत सरी दशदर्लता से सोिा दविार क ु ् नहीं, िैं बाहर आ गया
करता हूँ िहसूस कया होगा कया नहीं, हुआ आज एहसास,
उस दिट्री की खुशबू को, कया गलत कया सहरी, ये खयाल भरी आ गया
प्कृदत की वजू को, बढ़ते रहे, बढ़ते रहे, ए दिट्री की खुशबू तू वहरी है,
और याि आता है िुझे, बढ़ते रहे, बढ़ते रहे, िैं कहाँ से कहाँ आ गया
गुि हुआ बिपन अब िरीर हैं, गमभरीर हैं,
बाररशों का िौसि दलखते खुि तकिरीर हैं, ्व्त क ु मार
ख़वादहशों का आलि है दनरन्तर सािना, अधयापक
दझलदिलाते जुगनू िुनौदतयों की भरीड़ है, शाहिरा उत्ररी क्षेरि
सादर्यों का उपनयन शौक परी्े दकतने ्ूटे,
बािलों का वनगिन अपने पराये दकतने रूठे,
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